Thursday, October 16, 2014

तलाश...

ना जाने आज कहाँ से फिर ये सोती हुई उंगलियां जाग उठी;
जैसे बरसों बाद किसी ने आवाज़ दी  हो इन्हे,
इनके उठते ही एसा लगा जैसे कुछ बिखर गया था शायद अंदर;
समेटने का वक़्त हुआ हो जैसे एक बार फिर ;
तलाशती यूँ खुद को अंधेरों के बीच जैसे दूर एक उजाला नज़र आता हुआ
वो एक रौशनी दूर कहीं टिमटिमाते तारे की
जो ना जाने कब खो जाये इन बादलों के बीच, जैसे बस सहारा देने आया हो
एक उम्मीद जगाने आया हो, कहता  खो भी गया अगर खुद को ना खोने देना
उठना फिर से तुम और ढढूंढना जो खो गया है कहीं
वो मुस्कराहट जो खेलती थी इन होटों पर, वो शरारतें जो करती थी ये आँखे हर पल
वो सपने जो जागती आँखों में मचलते थे, वो ख्वाशियें जो हर पल कुछ कर गुजरने का एहसास थी
एक बार फिर से ज़िंदा होने दो वो सब अपने अंदर और
एक बार फिर से निकलो एक नयी ज़िन्दगी की तलाश में  एक नए खुद की तलाश में...

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