Saturday, October 31, 2009

कुछ अधूरा सा

ये मैं हूँ या मेरी ज़िन्दगी
कुछ उलझी-उलझी सी, कुछ बिखरी सी
जैसे किसी धोके में जी रही हूँ मैं
रिश्तों के ऐसे जाल में उलझी जिससे निकलने को
बाहर दिल नही करता पर दिमाग कहता है की
तोड़ दो ये बंधन छोड़ दो वो सब जो है ही नही तुम्हारा
इस दोराहे पैर खड़ी मैं बस सोचती रहती हूँ की
मैं क्या जो कर रही हूँ वो सही है या नही
अलग होना ही सही होगा या
फ़िर चलती रहूँ इन् झूठे नातों के साथ
निभाती रहूँ इनका साथ ओढे रहूँ ये चोंगा
पैर निश्चय तो करना ही होगा
छुटेगा किसी का साथ तो...
या तो मेरा ख़ुद मेरी परछाई से
या दमन कुछ रिश्तों का....
पर हार वो तो सिर्फ़ मेरी ही होगी ना !!!

Saturday, October 3, 2009

आवाज़.....

दिल के किसी कोने में एक आवाज़ दफन है
मेरी ही तरहे खामोश निगाहों से घूरती हुई,
इस आसमान को;
जहाँ रौशनी लिए टीमटिमा रहे हैं हजारों तारे
रोज़ इन ही हजारों तारों को देखकर,
ये दफन आवाज़ भी कभी-कभी कुछ बोलना चाहती है;
कुछ बताना चाहती है मुझे मेरे ही बारे में,
या तारुफ करवाना चाहती है मुझसे ही मेरा;
या शायद अपनी खामोशी को तोड़ना चाहती हैं
इन आकाश के तारों की तरहें टिमटिमाना चाहती हैं,
शायद यह भी इसकी ऊँचाइयों को छूना चाहती हैं
ये भूल कर की वो एक सपने जैसा है;
वहाँ पहुँचाना बहुत कठिन है बहुत मुश्किल
रास्ता लंबा और मुश्किलों से भरा है,
लेकिन जब इस जंग का आगाज़ हो ही चुका है
तो देखते हैं की अंजाम क्या होगा.....