ये जिंदगी भी एक अजीब पहेली है,
कभी गैर तो कभी लगती सहेली है;
मन् कभी पागल पंछी सा डोलता है,
तो कभी शांत सागर सा लगता है;
जाने क्या-क्या छुपा है इस दिल में,
ढूंढे जाने हर पल किसे हर "सू" में;
ना जाने कहाँ जाके रुकेगी ये "तलाश",
और लौट आएँगी ये खिशियाँ मेरे पास;
कहाँ कब कैसे मिलेगी मुझे ये मंजिल,
जिसे धुन्धुं मैं जैसे मौज को ढूंढे साहिल;
मैं भी उसको धुन्धुं हरदम,
ते है मेरा दीवानापन;
जिंदगी भी एक अजीब पहेली है,
कभी गैर तो कभी लगती सहेली है....!
Monday, July 13, 2009
Sunday, July 12, 2009
"नई रोशनी".........
बात सदियों पुरानी है,जब हम अपने देश को "सोने की चिडिया' के नाम से जानते थे...पर आज वो ही चिडिया एक दिखावे मात्र क सिवाए कुछ नही रह गई है।
माना की हमारे देश ने अपनी आज़ादी के ६२ सालों में बहुत तरक्की की है, लेकिन इस तरक्की के साथ-साथ हमारी मानसिकताएं और प्राथमिकताएं, सब कुछ संकीर्ण हो चुकी हैं। पहले जहाँ हम कभी सिर्फ़ अपने लिए नही अपितु "संपूर्ण देश" के लिए सोचते थे, अब वह "संपूर्ण" सिर्फ़ "मैं" में बदल चुका है।
हम कहते हैं की आज भी हमारे आदर्श "महात्मा गाँधी", "जवाहरलाल नेहरू", "सुभाष चन्द्र बोस", "सरोजिनी नायडू", " इंदिरा गाँधी" आदि हैं लेकिन अपने ह्रदय से हम हम सभी को ज्ञात है की ये महज़ एक धोका है जो हम अपने आप को दे रहे हैं। हम बचपन से सुनते आए है की "हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई" सब आपस में भाई- भाई,
लेकिन १५१ साल पहले अंग्रेजों ने जिस धर्म के नाम पर राज किया था, समाज के चाँद ठेकेदारों ने कभी अपनी कुर्सी की खातिर तो कभी अपनी जेब गर्म करने के लिए, कभी अपने स्वार्थ के लिए तो कभी अपने नाम के लिए इसी फार्मूले को भुनाया;
लेकिन अब और नही इस वक्त हमारे देश को ज़रूरत है एक और "गाँधी" की जो हमारी नई पीढी का मार्गदर्शन करा सके तो एक और "भगत सिंह" और "राजगुरु" जैसे लोगों की जो ज़रूरत पड़ने पर हथियार उठाना सिखा सकें। मगर इन सब के लिए हमें किसी और का इंतज़ार नही करना है, बल्कि सब कुछ हमें ही करना होगा। हम में से ही किसी एक को "गाँधी" तो किसी एक "भगत सिंह" बनना होगा ताकि हम अपने देश को एक बार फिर इस समाज के उन चाँद ठेकेदारों से आजाद करा सके जो अपने स्वार्थ के लिए इस देश को बेचने से भी नही चूकेंगे।
आज ज़रूरत है इस देश की युवा पीढी को एक "नई रोशनी" की और इस "नई रौशनी" की मशाल को जलाये रखने की, जो हमारे साथ-साथ( हमारी युवा पीढी के साथ-साथ) हमारे देश को भी अपनी इस "नई रोशनी" से जगमगा दें।
तो आइये मिलते हैं हाथ से हाथ ऐसे की ये हाथ,ये सरगम,ये संगम कभी न टूटे...........!!!
माना की हमारे देश ने अपनी आज़ादी के ६२ सालों में बहुत तरक्की की है, लेकिन इस तरक्की के साथ-साथ हमारी मानसिकताएं और प्राथमिकताएं, सब कुछ संकीर्ण हो चुकी हैं। पहले जहाँ हम कभी सिर्फ़ अपने लिए नही अपितु "संपूर्ण देश" के लिए सोचते थे, अब वह "संपूर्ण" सिर्फ़ "मैं" में बदल चुका है।
हम कहते हैं की आज भी हमारे आदर्श "महात्मा गाँधी", "जवाहरलाल नेहरू", "सुभाष चन्द्र बोस", "सरोजिनी नायडू", " इंदिरा गाँधी" आदि हैं लेकिन अपने ह्रदय से हम हम सभी को ज्ञात है की ये महज़ एक धोका है जो हम अपने आप को दे रहे हैं। हम बचपन से सुनते आए है की "हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई" सब आपस में भाई- भाई,
लेकिन १५१ साल पहले अंग्रेजों ने जिस धर्म के नाम पर राज किया था, समाज के चाँद ठेकेदारों ने कभी अपनी कुर्सी की खातिर तो कभी अपनी जेब गर्म करने के लिए, कभी अपने स्वार्थ के लिए तो कभी अपने नाम के लिए इसी फार्मूले को भुनाया;
लेकिन अब और नही इस वक्त हमारे देश को ज़रूरत है एक और "गाँधी" की जो हमारी नई पीढी का मार्गदर्शन करा सके तो एक और "भगत सिंह" और "राजगुरु" जैसे लोगों की जो ज़रूरत पड़ने पर हथियार उठाना सिखा सकें। मगर इन सब के लिए हमें किसी और का इंतज़ार नही करना है, बल्कि सब कुछ हमें ही करना होगा। हम में से ही किसी एक को "गाँधी" तो किसी एक "भगत सिंह" बनना होगा ताकि हम अपने देश को एक बार फिर इस समाज के उन चाँद ठेकेदारों से आजाद करा सके जो अपने स्वार्थ के लिए इस देश को बेचने से भी नही चूकेंगे।
आज ज़रूरत है इस देश की युवा पीढी को एक "नई रोशनी" की और इस "नई रौशनी" की मशाल को जलाये रखने की, जो हमारे साथ-साथ( हमारी युवा पीढी के साथ-साथ) हमारे देश को भी अपनी इस "नई रोशनी" से जगमगा दें।
तो आइये मिलते हैं हाथ से हाथ ऐसे की ये हाथ,ये सरगम,ये संगम कभी न टूटे...........!!!
आप...
क्या लिखूं मैं आपके बारे में,
कभी खुली किताब, तो कभी अनसुलझी पहेली सी लगते है आप ;
मेरे लिया तो एक शीतल छाँव से आप,
तो कभी शांत झील से उदास;
कभी कभी लगते जैसे हों मेरे पास,
तो कभी लगता जैसे चलें साथ साथ;
मेरे हर सपने को रंगीन बनते हैं आप,
और हर चीज़ से प्यारा है आपका एहसास;
बढ़ते हैं हाथ देने को सहारा,
जब भी भूलूं मैं किनारा;
कैसे कहूँ मेरी सबसे बड़ी ताकत हैं आप,
ऊपरवाले वहां धरती पर मेरे भगवान् हैं आप;
और जब देते मुझे अपने ज्ञान का उजाला,
तब अपने ही नाम "राकेश" से "रोशन" लगते हैं आप............!!!
कभी खुली किताब, तो कभी अनसुलझी पहेली सी लगते है आप ;
मेरे लिया तो एक शीतल छाँव से आप,
तो कभी शांत झील से उदास;
कभी कभी लगते जैसे हों मेरे पास,
तो कभी लगता जैसे चलें साथ साथ;
मेरे हर सपने को रंगीन बनते हैं आप,
और हर चीज़ से प्यारा है आपका एहसास;
बढ़ते हैं हाथ देने को सहारा,
जब भी भूलूं मैं किनारा;
कैसे कहूँ मेरी सबसे बड़ी ताकत हैं आप,
ऊपरवाले वहां धरती पर मेरे भगवान् हैं आप;
और जब देते मुझे अपने ज्ञान का उजाला,
तब अपने ही नाम "राकेश" से "रोशन" लगते हैं आप............!!!
कुछ खवाब
आचानक से आज हमें ये ख़याल आया,
की ऊपरवाले ने हमें क्यूँ है बनाया;
कोई मकसद ख़ास है या फ़िर,
यूँ ही हमें ये रास्ता है दिखाया;
और हम भी चल पड़े,
ढूँढ़ते अपनी अनजानी मंजिल की और;
पूरा करते अपने मकसद को,
कुछ अनकहे अधखिले खवाबों को;
है माना अपना पूरा जहाँ जिनको;
ख्वाब जो है कुछ नाज़ुक कुछ बेचैन से,
तो कुछ हँसी कुछ अनमने से;
कुछ जो देखे बंद आंखों से,
तो कुछ देखे है जागते से;
पाना है उनको बस अब तो इतना याद है,
और चलने को मुसाफिर भी तैयार है;
ख्वाब होंगे पूरे एक दिन है यकीन हमें,
मंजिलें मिलेंगी जहाँ वो रास्ते अब है हमारा रास्ता तकते हुए...............................
की ऊपरवाले ने हमें क्यूँ है बनाया;
कोई मकसद ख़ास है या फ़िर,
यूँ ही हमें ये रास्ता है दिखाया;
और हम भी चल पड़े,
ढूँढ़ते अपनी अनजानी मंजिल की और;
पूरा करते अपने मकसद को,
कुछ अनकहे अधखिले खवाबों को;
है माना अपना पूरा जहाँ जिनको;
ख्वाब जो है कुछ नाज़ुक कुछ बेचैन से,
तो कुछ हँसी कुछ अनमने से;
कुछ जो देखे बंद आंखों से,
तो कुछ देखे है जागते से;
पाना है उनको बस अब तो इतना याद है,
और चलने को मुसाफिर भी तैयार है;
ख्वाब होंगे पूरे एक दिन है यकीन हमें,
मंजिलें मिलेंगी जहाँ वो रास्ते अब है हमारा रास्ता तकते हुए...............................
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