Saturday, October 31, 2009

कुछ अधूरा सा

ये मैं हूँ या मेरी ज़िन्दगी
कुछ उलझी-उलझी सी, कुछ बिखरी सी
जैसे किसी धोके में जी रही हूँ मैं
रिश्तों के ऐसे जाल में उलझी जिससे निकलने को
बाहर दिल नही करता पर दिमाग कहता है की
तोड़ दो ये बंधन छोड़ दो वो सब जो है ही नही तुम्हारा
इस दोराहे पैर खड़ी मैं बस सोचती रहती हूँ की
मैं क्या जो कर रही हूँ वो सही है या नही
अलग होना ही सही होगा या
फ़िर चलती रहूँ इन् झूठे नातों के साथ
निभाती रहूँ इनका साथ ओढे रहूँ ये चोंगा
पैर निश्चय तो करना ही होगा
छुटेगा किसी का साथ तो...
या तो मेरा ख़ुद मेरी परछाई से
या दमन कुछ रिश्तों का....
पर हार वो तो सिर्फ़ मेरी ही होगी ना !!!

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